मैं जब भी गीता पढ़ता हूँ तो लगता है जैसे शरीर से बाहर निकल कर मैं स्वयं का अवलोकन कर रहा हूँ प्रकृति का अंतिम सत्य चक्षुओं के समक्ष प्रत्यक्ष आकर खड़ा हो जाता है, जिसके दर्शन से मन के सारे क्लेश, सारी तृष्णाएँ, भौतिक जगत के सारे लक्ष्य बड़े ही गौण प्रतीत होने लगते हैं, और ईश्वर की इस महान कृति सृष्टि में स्वयं की परिपूर्णता के आभास से मन में प्रफुल्लता के साथ अंतरात्मा में सकारात्मक ऊर्जाओं का प्रवाह होने लगता है। तर्कों की असीम संभावनाओं से भरी होने के बावज़ूद यह मन के प्रत्येक प्रवाह को परम लक्ष्य परमत्व की दिशा में कब मोड़ देती है अध्यनकर्ता को इसका पता ही नहीं चलता।
दो पंक्तियों में कहूँ तो,
मैं अमृतत्व परमत्व सत्व कर्मत्व जानकर तबसे,
हो विरक्त जीता जीवत्व हूँ गीता पढ़ी है जबसे।
यह मात्र मेरा अनुभव हो सकता है और आपका अनुभव निश्चत ही इससे भिन्न होगा क्योंकि गीता चैतन्यता का वो महासागर है जिसके प्रत्येक अवगाहनकर्ता के हाँथ नए मोतियों से भरे होते हैं। यही कारण है कि एक ही क्षेत्र में साथ साथ रहने के बावज़ूद गाँधीजी एवं लोकमान्यबालगंगाधर तिलक द्वारा गीता पर की गई टिप्पणियों में भिन्नता पाई जाती है। इसलिए मेरा यह मानना है कि गीता की व्याख्या अन्य किसी से सुनने की बजाय इसे स्वयं पढ़कर अपने अनुभव से समझने का प्रयत्न करना चाहिए।
अमृतत्व के माध्यम से मैंने श्रीमदभगवद्गीता का का काव्य रूप प्रस्तुत करने की कोशिश की है। गीता के ७०० श्लोकों का अर्थ इस काव्य में पढ़ा और समझा जा सकता है। इस रचना के सृजन में मैंने इस बात का विशेष ध्यान दिया है कि भाषा सरल व श्लोक के मूल अर्थ के अतिरिक्त इसमें अन्य किसी विषय वस्तु का समावेश न हो। अर्थात् इसके एक एक छंद से श्लोकों के अर्थ को समझा जा सकता है। संक्षेप में कहा जाए तो यह श्रीमदभगवद्गीता का टिप्पणीविहीन काव्यानुवाद है। जगह जगह पर विभिन्न प्रकार के छंद इस उद्देश्य से प्रयुक्त किये गए हैं कि जिससे न मात्र परिस्थिती की गंभीरता समक्ष उभर कर आए अपितु पाठक की रोचकता भी बनी रहे। आशा करता हूँ कि अमृतत्व को पढ़कर पाठकों को प्रसन्नता होगी और वे वास्तविक गीता की ओर अग्रसर होंगे।
- अरूण तिवारी