ईर्ष्या तृष्णा उच्च आस में,
कनक कामिनी बिन व्याकुल है,
काम क्रोध से ग्रसित मलिन मन,
ग्रास छीनने को आतुर है !
छल से बल से नित्य कपट रच,
नित निज साम्राज्य रचाता है,
चूस माँस का लोथ रात में,
दिन मानव राग सुनाता है !
चढ़ता जब मंदिर की सीढ़ी,
आडंबर का लिए सहारा,
तो उन भक्तों के अर्पण से,
कर ही लेते प्रभू किनारा !
अच्छा ही करते हैं प्रभु तो,
करके अस्वीकार अक्षत को,
सदुपार्जित वो नहीं छीन कर,
है निर्बल का छत उन्नत वो !
प्रभु को मूक बधिर मत कहना,
यदि तुझमें अब इंसान नहीं,
तो मृत शरीर तू यही समझ,
अब मंदिर में भगवान नहीं !!
-©अरुण तिवारी