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Friday 6 January 2017

!!! अमृतत्व !!!

तुम सीपी में हर बूँद पड़ी,
तुम ही सागर की लहर कड़ी,
तुम ही फूलों पंखुड़ियों में,
तुम मधुप लता की लड़ियों में।


तुम धनपतियों के वंदन में,
ढाढ़स निर्धन के क्रंदन में,
हाँ तुम स्वतंत्र हो बंधन भी,
तुम शीश शिखर के चंदन भी।


उर रूधिर तुम्हीं स्पंदन भी,
सब रंग भंग तुम रंजन भी,
तुम पगडंडी के कंकड़ में,
तुम मरू-भूमि के अंधड़ में।


हो तुम सशक्त पक्षीण तुम्हीं,
खग खग के मन का नीड़ तुम्हीं,
हो तुम पुनीत तुम पातक भी,
इक बूँद तरसता चातक भी।


पतझड़ हो तुम ऋतुराज तुम्हीं,
हो तुम अतीत भी आज तुम्हीं,
सौंदर्य तुम्हीं श्रृंगार तुम्हीं,
तुम ही प्रेमी मनुहार तुम्हीं।


घिरी लालिमा हो प्रभात की,
तुम्हीं कालिमा घोर रात की,
झर झर झर झरता प्रपात हो,
हित प्रिय सबको तुम्हीं भात हो।


वीणा के तार तरंगों में,
तुम इंद्रधनुष के रंगों में,
सरगम हो हर संगीत तुम्हीं,
तुम मृदु मुरली भी तीत तुम्हीं।


हाँ भँवर तुम्हीं मँझधार तुम्हीं,
नाविक नौका पतवार तुम्हीं,
तुम जीत मेरी व हार तुम्हीं,
हो सुख की मलय बयार तुम्हीं।


मृदंग थाप पैजन की बाज,
अभिनय हो हर अंदाज़ तुम्हीं,
व तुम नटवर मन मन का राज़,
जगती का हर आगाज़ तुम्हीं।


व खंड खंड में एक अखंड,
तुम शीतल शशि भी अग्नि चंड,
थे बली भीम के गदा तुम्हीं,
रणभूमि धुरी थे सदा तुम्हीं।


दृश्य तुम्हीं हो दृष्टि दृष्टि में,
तुम अदृश्य पर हो समष्टि में,
सकल सृष्टि तुम तुम्हीं सृष्टि में,
तुम तुषार घन तुम्हीं वृष्टि में।


तुम गंगा की धार धार हो,
तुम्हीं सूर्य के आर-पार हो,
गंध गंध में कंद कंद में,
तुम्हीं वेद में छंद छंद में।


जीव जीव के रोम रोम में,
यज्ञ यज्ञ के होम होम में,
हर पुकार में ओम ओम में,
तुम्हीं महीतल व्योम व्योम में।


नदी नदी के तीर तीर में,
वीर धीर में तुम्हीं भीर में,
तुम प्रशस्त हो पथ पथ पर,
तुम ही जीवन के हर रथ पर।


हर सृजन तुम्हीं हर प्रलय तुम्हीं,
हो तुम्हीं पराजित अजय तुम्हीं,
बस हो अशेष में शेष तुम्हीं,
मन की गति मंद आवेश तुम्हीं।


मनमीत तुम्हीं आधात तुम्हीं,
तुम ही विरूद्ध में साथ तुम्हीं,
तुम ही थे द्यूत पराजय में,
उन मंद स्वरों के आसय में।


तुमने ही खेल रचाया था,
दुर्योधन को भरमाया था,
थे तुम शकुनी के पाँसों में,
पंचाली के हर साँसों में।


थे अर्जुन के धनु बाण तुम्हीं,
उससे भिदता हर प्राण तुम्हीं,
जग छिड़ता हर संग्राम तुम्हीं,
हर हार जीत अंजाम तुम्हीं।


हो राम तुम्हीं धनश्याम तुम्हीं,
हो सुबह तुम्हीं हर शाम तुम्हीं,
पदरज के कण सरताज तुम्हीं,
हो नन्हीं चिरईया बाज़ तुम्हीं।


तुम्हीं मनोबल मेरे मन की आशा तुम्हीं निराशा हो,
पग पग के निर्धारक मेरे जीवन की परिभाषा हो।
सजा तुम्हारा रंगमंच ये बनते दास प्रधान कभी,
जिस क्षण जिसकी खत्म भूमिका होते एक समान सभी।


तुम अंग अंग तुम कृत्य कृत्य तुम चित्त वृत्ति हो मेरे,
व तुम ही विपत्ति तुम ही निवृत्ति अतृप्त तृप्ति हो मेरे।
तुम्हीं कर्म के दाता तुम ही कर्म कराने वाले हो,
और मनोरथ से कम बढ़कर फल बरसाने वाले हो।


इन सबके पीछे का कारण वंशीधर एक तुम्हीं हो,
इन आँख-मिचौली के पीछे बस नटवर एक तुम्हीं हो,


युग युग की धुरी बने जीवन की अक्षर अक्षर सारे,
वो शब्द समर में फूटे जो अधरों से कृष्ण तुम्हारे।

मैं अमृतत्व परमत्व सत्व कर्मत्व जानकर तबसे,
हो विरक्त जीता जीवत्व हूँ गीता पढ़ी है जबसे।


                   - © अरुण तिवारी