मिष प्रतिष्ठा का उपागम बन गया सत्संग जब,
ज्ञान का वैराग्य का कैसे चढ़ेगा रंग तब,
जब कुटिलता के कुटिर में संत के परिधान में,
बैठा हुआ व इन्द्रि का दस्यु बड़े ही शान में।
यदि उदर की भूख भी हो तो बड़ी चिंता नहीं,
कामरोगी अब मगर आता यहाँ छिपता यहीं,
अपरिग्रह सत्य क्या है क्या नियम संन्यास का?
अर्थ क्या उसके लिए तब धर्म के फिर न्यास का?
वो पिये मदिरा निसा में जिस्म के आगोश में,
भूल जाता वो स्वयं को चूर मद में जोश में,
टूट जाती हैं अनेकों श्वाँस की उसकी कड़ी,
जो अभागिन भूल से भी हाँथ में उसके पड़ी।
सूर्यवत् ढल तब चरित संध्या मलिन सी कोख में,
पी निसा की कालिमा रुकता नहीं तब रोक में,
जब असीमित शक्ति आती दुर्जनों के हाँथ पर,
तब निसा का राज चलता है दिवस के माथ पर,
तुम विचारों के किरणमय रेशमी रथ के रथी,
चेतना हो राष्ट्र की तुम जागरण के हो व्रती,
मानता मन इस धरा पर विप्लवी उद्घोष हो,
गर्ज़ना के दूत क्यों फिर इस तरह खामोश हो?
जन ह्रदय की प्राण की चिढ़ हो तुम्हीं हो वेदना,
बस तुम्हारे शब्द पर विश्वास है सबका बना,
ज्ञात दशकों कि तुम्हीं जनपथ का हर आक्रोश हो,
गर्ज़ना के दूत क्यों फिर इस तरह खामोश हो?
-©अरुण तिवारी